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श्री नमस्कार महामंत्र का स्वरूप :


श्री नमस्कार महामंत्र का स्वरूप :

श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु भगवंत स्वरूप परम पावन पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करने से सर्व प्रकार के पापकर्म का नाश होता है और उसके अंतिम फल स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
श्री नमस्कार महामंत्र में पूजनीय परमेष्ठी के नामोच्चार से पहले " नमो " शब्द का उल्लेख (निर्देश) किया गया है ।
नमो शब्द ...विनय, नम्रता, निअहंकार का ध्धोतक है, यह गुण आने के बाद ही भावपूर्वक किया हुआ नमस्कार... सर्व पापों का क्षय करता है ।
जैन धर्म में विनय गुण को अतिमहत्व का स्थान दिया गया है।
जैन धर्म में पंचपरमेष्ठी की आराधना अर्थात् उनके 108 गुणों को जीवन में धारण करना है ।
महामंत्र में परमेष्ठी के निराकार गुणों की स्तवना है ।
आचार्य श्री विध्या सागर जी आहार ग्रहण करते हुये 
पूर्व में महामंत्र चौदह पूर्व का सार और पंचमंगल महाश्रुत स्कन्ध के नाम से विख्यात है ।
महामंत्र अनादि-अनंत स्वरूप शाश्वत एवं त्रिकाल, त्रिलोक स्थायी मंत्र है, यह स्वयं ही सिद्ध होने से सिद्ध-मंत्र भी कहते है ।
महामंत्र को 1008 विद्धाओं व देवों से अधिष्ठित कहा गया है ।
द्रव्य नमस्कार : दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर शरीर को आधा या पुरा अष्टांग झुकाना ।
भाव नमस्कार : संसार वर्धक वर्तन-व्यवहार-उच्चार-विचार से अपने आपको दूर करना एवं जिनाज्ञा अनुसार जीवन बनाना है ।
पंचपरमेष्ठी का स्वरूप एवं गुणानुवाद :
वर्तमान शासनपति प्रभु वीर जिनेश्वर देशना में फरमाते है, हे भव्यों...! पंचपरमेष्ठी की आराधना ध्यान से आत्मज्ञान रूपी ऋद्धि की प्राप्ति होती है, तुम स्वयं पंचपरमेष्ठी स्वरूप को प्राप्त कर सकते हो ।
अरिहंत : बारह गुणों के धारक, द्रव्य गुण एवं पर्याय से अरिहंत पद का ध्यान करते हुए आत्मा अपना एवं अरिहंत के बीच का भेद नष्ट कर स्वयं अरिहंत रूपी बन जाता है ।
सिद्ध : आठ गुणों के धारक, सिद्ध भगवंतों का स्वरूप रुपरहित है, जो केवलज्ञान एवं केवलदर्शन से युक्त है..ऐसे सिद्ध भगवंतों का ध्यान करते करते आत्मा स्वयं भी सिद्ध स्वरूपी बन जाता है ।
आचार्य : छत्तीस गुणों के धारक, शुभध्यान धरने वाले आचार्य महाराज़ा का ध्यान करने से प्राणी स्वयं आचार्य बन जाता है ।
उपाध्याय : पच्चीच गुणों के धारक, तप और स्वाध्याय में हमेशा रक्त रहने वाले उपाध्याय का ध्यान करने से आत्मा स्वयं उपाध्याय बन जाती है ।
आचार्य श्री विध्या सागर जी प्रभु के  ध्यान मे 
साधु-साध्वी : सत्तावीस गुणों के धारक, जो हमेशा अप्रमत रहते है, स्तवना करने पर हर्ष नही करते न ही निन्दा करने पर शोक करते है...ऐसे अमृततुल्य साधुओं का ध्यान करने से आत्मा स्वयं साधु रूपी बन जाती है ।
परमात्मा, मुनिभगवंतों, ज्ञानियों का संदेश है...जो मानव पंच परमेष्ठी का ध्यान करता है..अर्थात उनके गुणों के अनुसार स्वयं आचरण करता है, वह अवश्यमेव उनके अनुरूप अवस्था को प्राप्त करता है ।
पवित्र करने वाले श्री अरिहंत प्रभु 12 गुणों से युक्त होते है, जिसमे आठ प्रातिहार्य तथा चार अतिशय का समावेश होता है ।
आठ प्रातिहार्य : 1.अशोक वृक्ष प्रातीहार्य 
2.सुर पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य 3.दिव्यध्वनी प्रातिहार्य 
4.चंवर प्रातिहार्य 5.सिंहासन प्रातिहार्य 6.भामंडल प्रातिहार्य 7.देवदुंदुम्भी प्रातिहार्य 8.छत्र प्रातिहार्य
चार अतिशय : 1.अपायापगमतिशय 
2.ज्ञानातिशय 3.पूजातीशय 4.वचनातिशय
पंच परमेष्ठी में श्री अरिहंत परमात्मा
की प्रधानता क्यों...?
तीर्थो की स्थापना के द्वारा जगत के जीवों को सन्मार्ग दिखलाने वाले होने तथा तीर्थ के आलंबन से अनेक भव्यात्माओं को मोक्ष की ओर प्रयाण कराने में समर्थ होने के कारण, ऐसे श्री तीर्थंकर परमात्मा अरिहंत प्रभु को पंचपरमेष्ठी में प्रधानता दी गयी है ।
अर्थात जिन्होंने स्वयं का, संग आत्माओं का
आत्मकल्याण किया एवं सकल विश्व को भी
आत्मकल्याण का जिनोपदेश दिया ।
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