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महिलाओं व अछुतो के लिए शिक्षा के द्वार किसने किस क्रांतिकारी ने खोले ।

संग्रहकर्ता दर्शन सिंह बाजवा द्वारा जारी इतिहास में 11 अप्रैल आज के दिन यानि 11 अप्रैल 1827 को भारत के महान विचारक, समाज सेवी,


महिलाओं और अछूतों के लिए शिक्षा के द्वार खोलने वाले तथा क्रान्तिकारी ज्योतिबा फुले का सतारा (महाराष्ट्र) में जन्म हुआ था। संविधान के निर्माता, भारत रत्न बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी ने जिन तीन महापुरुषों को अपना गुरु बताया था उनमें से एक नाम दादा साहब महात्मा ज्योतिबा फूले जी का है। महात्मा ज्योतिबा फुले को 19वीं सदी का प्रमुख समाज सेवक माना जाता है। उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया। अछूतोद्धार, नारी-शिक्षा, विधवा – विवाह और किसानों के हितों के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया है। उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करता था। ज्योतिबा जब मात्र एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था। ज्योतिबा का लालन – पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया। सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया। 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया लेकिन जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा। उनके पिता को ब्राह्मणों ने यह कहकर गुमराह किया कि पढ़ने से तेरा बेटा बिगड़ जायेगा। स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमें पढ़ने की ललक बनी रही। सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद की। घरेलु कार्यों के बाद जो समय बचता उसमें वह किताबें पढ़ते थे। ज्योतिबा आस-पड़ोस के बुजुर्गों से विभिन्न विषयों पर चर्चा करते थे। लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे।

स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्रीबाई फूले को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की। जब माता सावित्रीबाई फुले जी पढ़ाने के लिए विद्यालय जाते तो उन पर गोबर और कीचड़ फेंका जाता, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकलवा दिया। इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। ज्योतिबाफुले जी के मुस्लिम दोस्त उसमान शेख ने उन्हें रहने और स्कूल चलाने के लिए अपना मकान दे दिया। ये मकान आज भी खड़ा है जिसे फूले जी का बाड़ा नाम से जाना जाता है। बाद में जब और अध्यापकों की जरूरत पड़ी तो उसमान शेख जी ने अपनी बहन बीबी फातिमा शेख को बच्चों को पढ़ाने के काम पर लगा दिया।पेशवाई के अस्त होने के बाद अंग्रेजी हुकूमत की वजह से हुये बदलाव से 1840 के बाद हिंदू समाज के सामाजिक रूढी, परंपरा के खिलाफ बहुत से सुधारक आवाज उठाने लगे। इन सुधारकों ने स्त्री शिक्षण, विधवा विवाह, पुनर्विवाह, बालविवाह आदि सामाजिक विषयों पर लोगों को जगाने की कोशिश की। महात्मा ज्योतिबा फुले के इस सामाजिक आंदोलन से महाराष्ट्र में नई दिशा मिली। उन्होंने ऐसी स्पष्ट भूमिका रखी कि वर्ण और जातीय शोषण की व्यवस्था जब तक पूरी तरह से ख़त्म नहीं होती तब तक एक समाज का निर्माण असंभव है। ऐसी भूमिका लेने वाले वो पहले भारतीय थे। जातीव्यवस्था निर्मूलन की कल्पना और आंदोलन के वो जनक साबित हुये। अछूत स्त्रीयों और मेहनत करने वाले लोगों के लिए जितनी कोशिश की जा सकती थी उतनी कोशिश जिंदगी भर फुले ने की है। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन, बहुजन समाज को आत्मसन्मान देने की, किसानों के अधिकार की ऐसी बहुत सी लड़ाईयों को प्रारंभ किया। सत्यशोधक समाज भारतीय सामाजिक क्रान्ति के लिये कोशिश करने वाली अग्रणी संस्था बनी। महात्मा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ाने के बाद 1848 में पुणे में लडकियों के लिए भारत की पहली पाठशाला खोली। 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य समाज में शुद्रों पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना था। ब्राह्मणों ने इसे भी बरदाश्त नहीं किया। इसके मुकाबले पर गुजराती ब्राह्मण दयानंद सरस्वती ने 1875 को आर्य समाज बनाया। महात्मा फुले अंग्रेजी राज के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे क्योंकि अंग्रेजी राज की वजह से भारत में न्याय और सामाजिक समानता के नए बीज बोए जा रहे थे। महात्मा फुले ने अपने जीवन में हमेशा बड़ी ही प्रबलता तथा तीव्रता से विधवा विवाह की वकालत की। उन्होंने उच्च जाती की विधवाओं के लिए 1854 में एक घर भी बनवाया था। ज्योतिबा मैट्रिक पास थे और उनके घर वाले चाहते थे कि वो अच्छे वेतन पर सरकारी कर्मचारी बन जाए लेकिन ज्योतिबा ने अपना सारा जीवन दलितों की सेवा में बिताने का निश्चय किया था। उन दिनों में स्त्रियों की स्थिती बहुत खराब थी क्योंकि घर के कामों तक ही उनका दायरा था। बचपन में शादी हो जाने के कारण स्त्रियों के पढ़ने लिखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। दुर्भाग्य से अगर कोई बचपन में ही विधवा हो जाती थी तो उसके साथ बड़ा अन्याय होता था। तब उन्होंने सोचा कि यदि भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माताएं ही अंधकार में डूबी रहेंगी तो देश का क्या होगा और उन्होंने माताओं के पढ़ने पर जोर दिया था। ज्योतिबा यह जानते थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, साथ ही देश की नारियां समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार नहीं पा लेतीं। उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय नवयुवकों का आवाहन किया कि वे देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करें और एक स्वस्थ, सुन्दर सुदृढ़ समाज का निर्माण करें। मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। इससे अच्छी ईश्वर सेवा कोई नहीं। महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार के पिता समझे जाने वाले महात्मा फूले ने आजीवन सामाजिक सुधार हेतु कार्य किया। वे पढ़ने-लिखने को कुलीन लोगों की बपौती नहीं मानते थे। मानव-मानव के बीच का भेद उन्हें असहनीय लगता था। दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 'सत्यशोधक समाज' स्थापित किया। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास में, एक उच्च असोचनीय घटना हुई उस समय, ज्योतिबा को अपना घर छोड़ने के लिये मजबूर किया गया। हालाँकि इस तरह के दबाव और धमकियों के बावजूद भी वो अपने लक्ष्य से नहीं भटके और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ लड़ते रहे और इसके खिलाफ लोगों में चेतना फैलाते रहे। 1851 में इन्होंने बड़ा और बेहतर स्कूल शुरु किया जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। वहाँ जाति, धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था और उसके दरवाजे सभी के लिये खुले थे। यहां पर यह बात गौर करने वाली है कि 1848 में फूले जी विद्यालय खोलते हैं और 1851 में स्कूल बड़ा बन जाता है। ब्राह्मण अंग्रेजों के पास उनकी शिकायत करते हैं कि फूले दम्पति लोगों को बिगाड़ रही है लेकिन अंग्रेज फूले जी पर कोई कार्रवाही करने के बजाय उनका सम्मान करते हैं। यह बात ब्राह्मणों को खलती है। इसके बाद 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत होती है। इसके कारणों को ढूंढें तो एक कारण यह भी था कि अंग्रेजी सरकार ने शूद्रों को शिक्षा देकर धर्म विरोधी कार्य किया था। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने एक विधवा के बच्चे को गोद लिया था। यह बच्चा बड़ा होकर एक डॉक्टर बना और इसने भी अपने माता पिता के समाज सेवा के कार्यों को आगे बढ़ाया। मानवता की भलाई के लिए किये गए ज्योतिबा के इन निश्वार्थ कार्यों के कारण मई 1888 में उन्हें “महात्मा” की उपाधी प्रदान की गई। यह पहला अवसर था जब किसी व्यक्ति को आम लोगों द्वारा यह उपाधि दी गई। जुलाई 1888 में उन्हें लकवे का अटैक आ गया। जिसकी वजह से उनका शरीर कमजोर होता जा रहा था लेकिन उनका जोश और मन कभी कमजोर नहीं हुआ था। 27 नवम्बर 1890 को उन्होंने अपने सभी हितैषियों को बुलाया और कहा कि “अब मेरे जाने का समय आ गया है, मैंने जीवन में जिन जिन कार्यों को हाथ में लिया है उसे पूरा किया है, मेरी पत्नी सावित्रीबाई ने हरदम परछाई की तरह मेरा साथ दिया है और मेरा पुत्र यशवंत अभी छोटा है और मैं इन दोनों को आपके हवाले करता हूँ।” इतना कहते ही उनकी आँखों से आंसू आ गये और उनकी पत्नी ने उन्हें सम्भाला। 28 नवम्बर 1890 को ज्योतिबा फुले ने देह त्याग दिया और एक महान समाज सेवी इस दुनिया से विदा हो गया। अब यह बात गौर करने वाली है कि अगर महामना ज्योतिबा फुले जी ने शिक्षा की लहर नहीं चलाई होती तो बाबा साहब डॉः भीमराव अंबेडकर जी भी शायद पढ़ नहीं सके होते। ऐसा होने से हमारे लिए संविधान कौन लिखता, कौन हमारे हकों की बात करता ? महामना ज्योतिबा फूले जी भी शायद पढ़ लिख कर कमाने लग गए होते और सिर्फ अपने परिवार तक सीमित हो गए होते अगर उनके जीवन में एक घटना नहीं घटी होती। घटना यूं थी कि वे अपने ब्राह्मण दोस्त की बारात में चले गए लेकिन पहचान लिए जाने पर दोस्त के रिश्तेदारों ने फूले जी का अपमान करके बारात से निकाल दिया। अपमान होने के कारण फूले जी आत्महत्या करने के लिए नजदीकी दरिया की तरफ बढ़ने लगे। उधर से गले में हांडी और कमर पे झाड़ू लटकाए मुस्कुराते हुए आ रहे दो अछूतों को आते देखकर उनके मन में यह सवाल आया कि इनकी हर रोज बेइज्जती होती है फिर भी ये मुस्कुरा क्यों रहे हैं। फिर उन्हें ख्याल आया कि इन लोगों को कोई ज्ञान नहीं होने के कारण उन्हें अपनी इज्ज़त का कोई ख्याल नहीं रहता। फिर उन्होंने मरने का ख्याल छोड़कर लोगों को ज्ञान बांटने का फैसला कर लिया। कभी न कभी ऐसा समय हर किसी शूद्र पर आता है लेकिन हर किसी के सीने में फूले जी की तरह चोट नहीं लगती। जिसको चोट लगती है वो चुप करके कभी नहीं बैठता। अगर आप को भी कभी चोट महसूस हुई हो तो घर से निकल पड़ो फूले जी की तरह लोगों को ज्ञान बांटने के लिए। 

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