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आरटीआई कानून में सरकार ऐसा क्या बदलाव कर रही है,

 नई दिल्ली :- साल 2005. केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी. तारीख थी 12 अक्टूबर. सरकार ने एक नया कानून लागू किया. नाम था सूचना का अधिकार. अंग्रेजी में कहते हैं राइट टू इन्फर्मेशन यानी कि आरटीआई. कानून लागू हुआ और फिर इस कानून के जरिए दबी-छिपी सूचनाएं भी लोगों के पास पहुंचने लगीं. खूब तारीफ हुई इस कानून की. मनमोहन सिंह की सरकार भी 2009 में दोबारा सत्ता में आई. कानून चलता रहा, लोगों तक सूचनाएं पहुंचती रहीं. करीब 14 साल का वक्त बीता. साल आया 2019. सरकार बदली और एक बार फिर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सत्ता में आ गई. कानून चलता रहा. लेकिन 22 जुलाई, 2019 एक ऐसी तारीख थी, जब इस कानून में बदलाव की बात हुई. मोदी सरकार लोकसभा में सूचना का अधिकार कानून में संशोधन लेकर आई. संशोधन के पक्ष में 218 वोट पड़े और विरोध में पड़े माक्ष 79 वोट. और ये संशोधन बिल लोकसभा में पास भी हो गया. अब इसे राज्यसभा से पास करवाना होगा. फिर इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा और वहां से मंजूरी मिलने के बाद इस कानून में बदलाव आ जाएंगे.

क्या है अभी का कानून और क्या होंगे बदलाव?

# राइट टू इन्फर्मेशन ऐक्ट 2005 के दो सेक्शन में बदलाव हुए हैं. पहला है सेक्शन 13 और दूसरा है सेक्शन 16.

# 2005 के कानून में सेक्शन 13 में जिक्र था कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का कार्यकाल पांच साल या फिर 65 साल की उम्र तक, जो भी पहले हो, होगा.

# 2019 में संशोधित कानून कहता है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का कार्यकाल केंद्र सरकार पर निर्भर करेगा.

# साल 2005 के कानून में सेक्शन 13 में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त की तनख्वाह का जिक्र है. मुख्य सूचना आयुक्त की तनख्वाह मुख्य निर्वाचन आयुक्त की तनख्वाह के बराबर होगा. सूचना आयुक्त की सैलरी निर्वाचन आयुक्त की सैलरी के बराबर होगी.

# 2019 का संशोधित कानून कहता है कि मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी और सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार तय करेगी.
केंद्र सरकार की ओर से लोकसभा में पेश किए गए सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक 2019 लोकसभा में पास हो गया है.
# 2005 के ओरिजिनल आरटीआई ऐक्ट के सेक्शन 16 में राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त का जिक्र है. इसमें लिखा है कि राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य के सूचना आयुक्त का कार्यकाल पांच साल या 65 साल की उम्र तक, जो भी पहले हो, तब तक होगा.

# 2019 का संशोधित कानून कहता है कि राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य के सूचना आयुक्त का कार्यकाल केंद्र सरकार तय करेगी.

# 2005 के ओरिजिनल ऐक्ट के मुताबिक राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी राज्य के निर्वाचन आयुक्त की सैलरी के बराबर होगी. राज्य के सूचना आयुक्त की सैलरी राज्य के मुख्य सचिव के बराबर होगी.

# संशोधित ऐक्ट के मुताबिक राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार तय करेगी.

क्यों हो रहा है इस बिल का विरोध?
19 जुलाई, 2019 को इस बिल को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में पेश किया. 22 जुलाई को ये बिल लोकसभा से पास भी हो गया, लेकिव विपक्षी पार्टियां बिल में हुए इन संशोधनों का विरोध कर रही हैं. विपक्ष के नेताओं का तर्क है कि इन संशोधनों के जरिए केंद्र सरकार सूचना के अधिकार कानून की स्वायत्ता खत्म कर रही है. विपक्ष का तर्क है कि अब सरकार अपने पसंदीदा केस में सूचना आयुक्तों का कार्यकाल बढ़ा सकती है और उनकी सैलरी बढ़ा सकती है. लेकिन अगर सरकार को किसी सूचना आयुक्त का कोई आदेश पसंद नहीं आया, तो उसका कार्यकाल खत्म हो सकता है या फिर उसकी सैलरी कम की जा सकती है.
सरकार ने क्या तर्क दिए हैं?
केंद्र सरकार का तर्क ये है कि सूचना आयुक्त की सैलरी और उनका कार्यकाल इलेक्शन कमीशन की सैलरी और उनके कार्यकाल पर निर्भर करता है. लेकिन इलेक्शन कमीशन का काम और सूचना आयुक्त का काम अलग-अलग है. लिहाजा दोनों के स्टेटस और उनके काम करने की स्थितियां अलग-अलग हैं. गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में कहा कि केंद्रीय सूचना आयुक्त को सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर दर्जा दिया गया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जज के आदेश को चुनौती दी जा सकती है, लेकिन आरटीआई के साथ ऐसा नहीं है.

2005 में किसने किया था बिल का समर्थन?
2005 में जब ये बिल पास हुआ था, तो इससे पहले ये बिल संसद की कई समितियों जैसे कार्मिक मामलों की संसदीय समिति, लोक शिकायत समिति और कानून और न्याय समिति के सामने गया था और वहां से मंजूर हुआ था. इस समितियों में उस वक्त के बीजेपी के सांसद और अब राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, बलवंत आप्टे और राम जेठमलानी जैसे बीजेपी के नेता शामिल थे. उस वक्त इस बीजेपी नेताओं की कमिटी ने कहा था कि मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार के सेक्रेटरी के बराबर होनी चाहिए. वहीं कमिटी ने कहा था कि केंद्र के सूचना आयुक्त और राज्य के सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार के अडिशनल सेक्रेटरी या जॉइंट सेक्रेटरी के बराबर होनी चाहिए. ईएमएस नचीअप्पन के नेतृत्व में बनी संसदीय समिति ने 2005 में जब अपनी रिपोर्ट पेश की, तो नए नियम सामने आए, जो 14 साल तक चले.


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