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भगवान महावीर की जन्मभूमि ‘‘कुण्डलपुर’’ है

भगवान महावीर की जन्मभूमि ‘‘कुण्डलपुर’’ है

भगवान महावीर जी 
भगवान महावीर की जन्मभूमि ‘‘कुण्डलपुर’’ है ऐसा वर्णन श्रीयतिवृषभआचार्यदेव ने अतिप्राचीन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में कहा है-
सिद्धत्थरायपियकारिणीहिं, णयरम्मि कुण्डले वीरो। उत्तरफग्गुणिरिक्खे, चित्तसियातेरसीए उप्पण्णो।।५४६।।
भगवान महावीर कुण्डलपुर नगर के राजा सिद्धार्थ की रानी प्रियकारिणी के गर्भ से चैत्र शुक्ला तेरस के दिन उत्पन्न हुए हैं। षट्खण्डागम महागं्रथ (धवला) के चतुर्थ खंड में वर्तमान में प्रकाशित ९वीं पुस्तक में लिखा है-
‘‘आषाढ़जोण्हपक्खछट्ठीए कुंडलपुरणगराहिव णाहवंस-सिद्धत्थ-णरिन्दस्स तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहिय णवमासे अच्छिय चइत्तसुक्कपक्ख तेरसीए रत्तीए उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो।।’’
आषाढ़मास की शुक्ला षष्ठी के दिन कुण्डलपुर नगर के अधिपति नाथवंशी राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला देवी के गर्भ में आकर वहाँ आठ दिन अधिक नवमाह पर्यंत रहकर चैत्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान महावीर ने जन्म लिया था। भगवान का जन्म रात्रि में हुआ था ऐसा कथन इसी ग्रंथ में है-
कुण्डपुरपुरवरिस्सर, सिद्धत्थक्खत्तियस्स णाहकुले। तिसिलाए देवीए, देवीसदसेवमाणाए।।२३।।
अच्छित्ता णवमासे, अट्ठ य दिवसे चइत्त-सियपक्खे। तेरसिए रत्तीए, जादुत्तरफग्गुणीए दु।।२४।।
अर्थात् कुण्डलपुर नगर के सिद्धार्थ क्षत्रिय के घर नाथकुल में सैकड़ों देवियों से सेवमान त्रिशला देवी के गर्भ में महावीर का जीव आया और वहां नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए भगवान का जन्म हुआ। इस कुण्डलपुर को अनेक ग्रंथों में कुंडपुर भी कहा है लेकिन यह छोटा सा कुण्डग्राम नहीं है प्रत्युत् विदेहदेश की महान-विशाल राजधानी थी। देखिए-
भगवान महावीर स्वामी जी 

अथ देशोऽस्ति विस्तारी, जम्बूद्वीपस्य भारते। विदेह इति विख्यातः स्वर्गखण्डसमः श्रिया।।१।।
प्रतिवर्षविनिष्पन्नधान्यगोधनसंचितः। सर्वोपसर्गनिर्मुक्तः प्रजासौस्थित्य सुन्दरः।।२।।
सखेटखर्वटाटोपिमटम्बपुटभेदनैः। द्रोणामुखाकरक्षेत्रग्रामघोषैर्विभूषितः।।३।।
किं तस्य वण्र्यते यत्र स्वयं क्षत्रियनायकाः। इक्ष्वाकवः सुखक्षेत्रे संभवंति दिवश्च्युताः।।४।।
तत्राखण्डलनेत्रालीपद्मनीखण्डमण्डलम् । सुखाम्भः कुण्डमाभाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरं।।५।।
यत्र प्रासादसंघातैः शंखशुभ्रैर्नभस्तलम् । धवलीकृतमाभाति शरन्मेघैरिवोन्नतैः।।६।।
चन्द्रकान्तकरस्पर्शाच्चन्द्रकान्तशिलाः निशि। द्रवन्ति यद्गृहाग्रेषु प्रस्वेदिन्य इव स्त्रियः।।७।।
सूर्यकान्तकरासंगात् सूर्यकान्ताग्रकोटयः। स्फुरन्ति यत्र गेहेषु विरक्ता इव योषितः।।८।।
पद्मरागमणिस्फीतिर्यत्र प्रासादमूर्धनिं । इनपादपरिष्वंगादंगनेवातिरज्यते।।९।।
मुक्तामरकतालौकर्वङ्कावैडूर्यविभ्रमैः। एकमेवं सदा धत्ते यत्समस्ताकरश्रियम् ।।१०।।
शाल शैलमहावप्रपरिखापरिवेषिणः। यस्योपरि परं गच्छत्यमित्रेतरमण्डलम् ।।११।।
एतावतैव पर्याप्तं पुरस्य गुणवर्णनम् । स्वर्गावतरणे तद्यद्वीरस्याधारतां गतम् ।।१२।।
सर्वार्थश्रीमतीजन्मा तस्मिन् सिद्धार्थदर्शनः। सिद्धार्थो भवदर्काभो भूपः सिद्धार्थपौरुषः।।१३।।
यत्र पाति धरित्रीयमभूदेकत्र दोषिणी। धर्मार्थिन्योपि यत्त्यक्तपरलोकभयाः प्रजाः।।१४।।
कस्तस्य तान् गुणानुद्धान्नस्तुलयितुं क्षमः। वद्र्धमानगुरुत्वं यः प्रापितः स नराधिपः।।१५।।
उच्चैःकुलाद्रिसंभूता सहजस्नेहवाहिनी। महिषी श्रीसमुद्रस्य तस्यासीत् प्रियकारिणी।।१६।।
चेतश्चेटकराजस्य यास्ताः सप्तशरीरजाः। अतिस्नेहाकुलं चव्रुâस्तास्वाद्या प्रियकारिणी।।१७।।
कस्तां योजयितुं शक्तस्त्रिशलां गुणवर्णनैः। या स्वपुण्यैर्महावीरप्रसवाय नियोजिता।।१८।।
जैन धर्म के चोबिस तीर्थंकर 

अर्थात् इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में लक्ष्मी से स्वर्गखण्ड की तुलना करने वाला विदेह इस नाम से प्रसिद्ध एक बड़ा विस्तृत देश है। यह देश प्रतिवर्ष उत्पन्न होेने वाले धान्य तथा गोधन से संचित है, सब प्रकार के उपसर्गों से रहित है, प्रजा की सुखपूर्ण स्थिति से सुन्दर है और खेट, खर्वट, मटम्ब, पुटभेदन, द्रोणामुख, सुवर्ण-चांदी आदि की खानों, खेत, ग्राम और घोषों से विभूषित है।
जो नगर, नदी और पर्वत से घिरा हो उसे बुद्धिमान पुरुष खेट कहते हैं, जो केवल पर्वत से घिरा हो उसे खर्वट कहते हैं, जो पांच सौ गांवों से घिरा हो उसे पण्डितजन मटम्ब कहते हैं, जो समुद्र के किनारे हो तथा जहां पर लोग नाव से उतरते हों उसे पत्तन या पुटभेदन कहते हैं, जो किसी नदी के किनारे बसा हो उसे द्रोणामुख कहते हैं, जहां सोना-चांदी आदि निकलता हो उसे खान कहते हैं, अन्य उत्पन्न होने की भूमि को क्षेत्र या खेत कहते हैं, जिनमें बाड़ से घिरे हुए घर हों, जिनमें अधिकतर शूद्र और किसान लोग रहते हैं तथा जो बाग-बगीचा और मकानों से सहित हों उन्हें ग्राम कहते हैं और जहां पर अहीर लोग रहते हैं उन्हें घोष कहते हैं। वह विदेहदेश इन सबसे विभूषित था। उस देश का क्या वर्णन किया जाये जहां के सुखदायी क्षेत्र में क्षत्रियों के नायक स्वयं इक्ष्वाकुवंशी राजा स्वर्ग से च्युत हो उत्पन्न होते हैं।
उस विदेहदेश में कुण्डपुर नाम का एक ऐसा सुन्दर नगर है जो इन्द्र के नेत्रों की पंक्तिरूपी कमलिनियों के समूह से सुशोभित है तथा सुखरूपी जल का मानो कुण्ड ही है। जहां शंख के समान सफेद एवं शरदऋतु के मेघ के समान उन्नत महलों के समूह से सफेद हुआ आकाश अत्यन्त सुशोभित होता है? जिसके महलों के अग्रभाग में लगी हुई चन्द्रकांतिमणि की शिलाएं रात्रि के समय चन्द्रमा रूपी पति के कर अर्थात् किरण स्पर्श से स्वेदयुक्त स्त्रियों के समान द्रवीभूत हो जाती हैं। जहाँ के मकानों पर लगे हुए सूर्यकान्तमणि के अग्रभाग की कोटियां, सूर्यरूपी पति के कर अर्थात् किरण के स्पर्श से विरक्त स्त्रियों के समान देदीप्यमान हो उठती हैं। जहां के महलों के शिखर पर लगे हुए पद्मराग मणियों की पंक्ति सूर्य की किरणों के संसर्ग से स्त्री के समान अत्यन्त अनुरक्त हो जाती है। उस नगर में कहीं मोतियों की मालाएं लटक रही हैं, कहीं मरकत मणियों का प्रकाश फैल रहा है, कहीं हीरा की प्रभा फैल रही है और कहीं वैडूर्यमणियों की नीली-नीली आभा छिटक रही है। उन सबसे वह एक होने पर भी सदा सब रत्नों की खान की शोभा धारण करता है। कोटरूपी पर्वत, बड़े-बड़े धूलि कुट्टिम और परिवार से घिरे हुए उस नगर के ऊपर यदि कोई जाता था तो मित्र अर्थात् सूर्य का मण्डल ही जा सकता है अमित्र अर्थात् शत्रुओं का मण्डल नहीं जा सकता था। इस नगर के गुणों का वर्णन तो इतने से ही पर्याप्त हो जाता है कि वह नगर स्वर्ग से अवतार लेते समय भगवान महावीर का आधार हुआ आर्थात् भगवान महावीर वहां स्वर्ग से आकर अवतीर्ण हुए।
राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती से उत्पन्न, समस्त पदार्थों को देखने वाले, सूर्य के समान देदीप्यमान और समस्त अर्थ-पुरुषार्थ सिद्ध करने वाले ‘‘सिद्धार्थ’’ वहां के राजा थे। जिन सिद्धार्थ के रक्षा करने पर पृथिवी इसी एक दोष से युक्त थी कि वहां की प्रजा ने धर्म की इच्छुक होने पर भी परलोक का भय छोड़ दिया था अर्थात् जो प्रजा धर्म की इच्छुक होती है उसे स्वर्ग, नरक आदि परलोक का भय अवश्य रहता है परन्तु परलोक का अर्थ शत्रु लोगों से विरोध दूर हो जाता है अर्थात् वहां की प्रजा धर्म की इच्छुक थी और शत्रुओं के भय से रहित थी। जो राजा सिद्धार्थ साक्षात् भगवान वद्र्धमान के पितृ पद को प्राप्त हुए थे उनके गुणों का वर्णन करने के लिए कौन मनुष्य समर्थ हो सकता है। जो उच्चकुलरूपी पर्वत से उत्पन्न स्वाभाविक स्नेह की मानो नदी थी ऐसी रानी प्रियकारिणी लक्ष्मी के समुद्रस्वरूप राजा सिद्धार्थ की प्रिय पत्नी थी। जिन सात पुत्रियों ने राजा चेटक के चित्त को अत्यधिक स्नेह से व्याप्त कर रखा था उन पुत्रियों में प्रियकारिणी सबसे बड़ी पुत्री थी जो अपने पुण्य से भगवान महावीर को जन्म देने के लिए प्रवृत्त हुई। उस त्रिशला के गुणवर्णन के लिए कौन समर्थ है? श्री असगकवि विरचित ‘‘वद्र्धमान चरित’’में भी कुण्डलपुर का सुन्दर वर्णन आया है यथा-
तत्रास्त्यथो निखिलवस्त्ववगाहयुत्तंकं, भास्वत्कलाधरबुधैः सवृषं सतारंं। अध्यासितंवियदिवस्वसमानशोभं ख्यातं पुरं जगति कुण्डपुराभिधानं।।
प्राकारकोटिघटितारुणरत्नभासां छायामयैः परिगता पटलैः समंतात्। आभातिवारिपरिखा नितरामनेकां संध्याश्रियं विदधतीव दिवापि यत्र।।
धौतेन्द्रनीलमणिकल्पितकुट्टिमेषु यत्रोपहाररचितान्यसितोत्पलानि। एकीकृतान्यपि सलीलतया प्रयांति व्यत्तिंकं पतद्भ्रमरहुवृंकंतिभिः समंतात्।।
जैत्रेषवः सुमनसो मकरध्वजस्य निस्तेजितांबुजरुचो शशलक्ष्मभासः। अप्रावृषोः नवपयोधरकांतयुक्ता यस्मिनविभान्त्यसरितः सरसा रमण्यः।।
अत्युन्नताः शशिकरप्रकरावदाता मूर्धस्थरत्नरुचिपल्लवितांतरिक्षाः। उत्संगदेशसुनिविष्टमनोज्ञरामाः पौरा विभांति भुवि यत्र सुधालयाश्च।।
लीलामहोत्पलमपास्य कराग्रसंस्थं कर्णोत्पलंच विगलन्मधु यत्र भृंगाः। निश्वाससौरभरता वदने पतन्ति स्त्रीणां मृदुर्मृदुकराहतिभीप्सवश्च।।

कुण्डलपुर का वर्णन महाकवि असग ने अपने ‘‘वद्र्धमानचरित’’ में किया है। यह नगर सभी प्रकार की वस्तुओं से युक्त परकोटा, खातिका, वापिका एवं वाटिकाओं से परिपूर्ण था। कोट के प्रांत भागों में लगी हुई अरुणमणियां, पन्नाओं की प्रभा के छायामय पटलों से परिपूर्ण होने के कारण संध्याकालीन श्री का सृजन करती थीं। भूमि पर जटित इन्द्रनीलमणियां अपनी आभा से भ्रमरों की भ्रांति उत्पन्न करती थीं। उन्नत भवन और रत्नजटित गोपुर अपने सौन्दर्य से पथिकों के मन को आकृष्ट करते थे। मुक्ताओं की आभा के कारण इस नगर में श्वेत किरणों का वितान तना रहता था। धन-धान्य, पशु-सम्पत्ति आदि से युक्त यह नगर प्रजाजनों को अत्यन्त सुखप्रद था।
भगवान महावीर के समय यह कुण्डलपुर कितना वैभवपूर्ण था उसका वर्णन आपने पढ़ा। वास्तव में जहां सौधर्मइन्द्र की आज्ञा से कुबेर लगातार पन्द्रह महिने तक प्रतिदिन साढ़े सात करोड़-साढ़े सात करोड़ प्रमाण रत्नों की वर्षा करता हो और माता का महल नंद्यावर्त नाम से सात खन का हो तथा जहां माता का पलंग ही रत्नों से निर्मित हो उसके वैभव का हम और आप क्या अनुमान लगा सकेगे? ऐसे ही ‘‘वीरजिणिंद चरिउ’’ और ‘‘महावीर पुराण’’में भी विदेहदेश के अंतर्गत कुण्डपुर में भगवान महावीर का जन्म माना है। ऐसी पावन नगरी कुण्डलपुर जन्मभूमि को मेरा शत-शत नमन।
वैशाली
सिन्ध्वाख्यविषये भूभृद्वैशाली नगरेऽभवत्, चेटकाख्योऽतिविख्यातो विनीत: परमार्हतः।।३।।
तस्य देवी सुभद्राख्या तयोः पुत्र दशाभवन्, धनाख्यौ दशभद्रान्तावुपेन्द्रोऽन्य: सुदशवाव्।।४।।
िंसहभद्रः सुकम्भोजोऽकम्पनः सपतंङ्गकः, प्रभञ्जनः प्रभासश्च धर्मा इव सुनिर्मलाः।।५।।
सप्तर्धयो वा पुत्रयश्च ज्यायसी प्रियकारिणी, ततो मृगावती पश्चात्सुप्रभा च प्रभावती।।६।।
चेलनी पंचमी ज्येष्ठा षष्ठी चान्त्या च चन्दना, विदेहविषये कुण्डसन्ज्ञायां पुरि भूपतिः।।७।।
नाथो नाथकुलस्यैकः सिद्धार्थाास्त्रसिद्धिभाव्कं, तस्य पुण्यानुभावेन प्रियासीाqत्प्रयकारिणी।।८।।
विषये वत्सवासाख्ये कौशाम्बीनगराधिपः, सोमवंशे शतानीको देव्यस्यासीन्मृगावती।।९।।
दशार्णविषये राजा हेमकच्छपुराधिपः, सूर्यवंशाम्बरे राजसमो दशरथोऽभवत्।।१०।।
तस्याभूत्सुप्रभा देवी भास्वतो वा प्रभामला, कच्छाख्यविषये रोरुकाख्यायां पुरि भूपतिः।।११।।
महानुदयनस्तस्य प्रेमदाऽभूत्प्रभावती, प्राप शीलवतीख्यािंत सा सम्यक्छीलधारणात्।।१२।।
गान्धारविषये ख्यातो महीपालो महीपुरे, याचित्वा सत्यको ज्येष्ठामलब्ध्वा व्रुद्धवान् विधीः।।१३।।
युद्धवा रणाङ्गणे प्राप्तमानभङ्ग स सत्रपः, सद्यो दमवरं प्राप्य ततः संयममग्रहीत्।।१४।।
सिन्धु नामक देश की वैशाली नगरी में चेटक नाम का अतिशयप्रसिद्ध, विनीत और जिनेन्द्रदेव की अतिशय भक्त राजा था उसकी रानी का नाम सुभद्रा था। उन दोनों के दश पुत्र हुए जोकि धनदत्त, उपेन्द्र, सुदत्त, िंसहाभद्र, सुकुम्भोज, अकम्पन, पतंगक, प्रभंजन और प्रभास नाम से प्रसिद्ध थे तथा उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों के समान जान पड़ते थे। इन पुत्रों के सिवाय सात ऋद्धियों के समान सात पुत्रियां भी थीं जिनमें सबसे बड़ी प्रियकारिणी थी, उससे छोटी मृगावती, उससे छोटी सुप्रभा, उससे छोटी प्रभावती, उससे छोटी चेलिनी, उससे छोटी ज्येष्ठा और सबसे छोटी चन्दना थीं। विदेहदेश के कुण्डनगर में नाथवंश के शिरोमणि एवं तीनों सिद्धियों से सम्पन्न राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। पुण्य के प्रभाव से प्रियकारिणी उन्हीं की स्त्री हुई थी। वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में चन्द्रवंशी राजा शतानीक रहते थे, मृगावती नामकी दूसरी पुत्री उनकी स्त्री हुई थी। दशार्णदेश के हेमकच्छ नामक नगर के स्वामी राजा दशरथ थे जोकि सूर्यवंशरूपी आकाश के चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे। सूर्य की निर्मलप्रभा के समान सुप्रभा नामकी तीसरी पुत्री उनकी रानी हुई थी, कच्छदेश की रोरुका नामकी नगरी में उदयन नाम का एक बड़ा राजा था प्रभावती नामकी चौथी पुत्री उसी की हृदयवल्लभा हुई थी। अच्छी तरह से शीलव्रत धारण करने से इसका दूसरा नाम शीलवती भी प्रसिद्ध हो गया था। गन्धारदेश के महीपुर नगर में राजा सत्यक रहता था उसने राजा चेटक से उसकी ज्येष्ठा नामकी पुत्री की याचना की परन्तु राजा ने नहीं दी इससे उस दुर्बुद्धि मुर्ख ने कुपित होकर रणांगण में युद्ध किया परन्तु युद्ध में वह हार गया जिससे मानभंग होने से लज्जित होने के कारण उसने शीघ्र ही दमवर नामक मुनिराज के समीप जाकर दीक्षा धारण कर ली। इन महाराज चेटक की पांचवी पुत्री चेलना मगधदेश के राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक की रानी हुई हैंं। तथा ज्येष्ठा और चन्दना कुमारी रही हैं। ये राजा चेटक सोमवंशी थे जैसा कि उत्तरपुराण में कहा है-
सुरलोकादभूः सोम-वंशेत्वं चेटको नृपः।
इन पांक्तयों से स्पष्ट है कि राजा सिद्धार्थ नाथवंशी थे और वैशाली के राजा चेटक सोमवंशी थे अतः इन दोनों राजाओं के देश अलग-अलग हैं, राजधानी अलग-अलग हैं और गोत्र भी अलग-अलग हैं। पिता के राजमहल में माता के आंगन में पन्द्रमहीनों तक रत्नों की वर्षा होती है। गर्भकल्याणक महोत्सव में इन्द्रों द्वारा भगवान के माता-पिता की पूजा की जाती है न कि नाना-नानी की। जैसा कि कहा भी है-
श्रुतस्वप्नफला देवी, तुष्टा प्राप्तेव तत्फलम्, अथामराधिपाः, सर्वे, तयोरभ्येत्य सम्पदा।।२६०।।
कल्याणाभिषवं कृत्वा, नियोगेषु यथोचितम्, देवान् देवीश्च संयोज्य, स्वं स्वं धाम ययुःपृथक।।२६१।।
स्वप्नों का फल सुनकर वह त्रिशला महारानी इतनी संतुष्ट हुई मानों उनका फल उसने उसी समय ही प्राप्त कर लिया हो तदन्तर इन्द्रादि सभी देवों ने आकर बड़े वैभव के साथ राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी का गर्भकल्याणकसंबंधी अभिषेक करके देव-देवियों को यथायोग्य कार्यों में नियुक्त करके वे सब देवगण अपने-अपने स्थान चले गए।
इसी प्रकार दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रन्थों में कहीं पर भी तीर्थंकर भगवनतों के चातुर्मास का वर्णन नहीं आया है। ‘‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’’ नाम की पुस्तक में छठे परिच्छेद में भगवान महावीर स्वामी के बारह वर्ष के दीक्षित जीवन में बारह चातुर्मास माने हैं और भिन्न-भिन्न उपसर्गों का वर्णन किया है जो दिगम्बर जैन ग्रन्थों के आलोक में संभव नहीं हो सकता है। भगवान के ऊपर मात्र उज्जयिनी नगरी के अतिमुक्तक वन में केवलएक बार ही रुद्र द्वारा उपसर्ग हुआ है न कि प्रतिदिन बार-बार व अनेकों बार। यह सब (चातुर्मास एवं अनेक बार उपसर्ग आदि) प्रकरण श्वेताम्बर ग्रन्थों से ही उद्धृत है ऐसा जानना। जैनशासन के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने जहाँ लगभग २६०० वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त की राजधानी कुण्डलपुर (निकट नालंदा) में जन्म लिया, वहीं उनके मंगल विहारों एवं दीक्षा आदि कल्याणकों से भी पावन बनने का सौभाग्य इसी प्रान्त को प्राप्त हुआ है। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को कुण्डलपुर में सौधर्म इन्द्र के साथ पूरा स्वर्ग ही उतरकर आ गया था क्योंकि भरतक्षेत्र में इस युग के अंतिम तीर्थंकर का जन्म हुआ था। महाराजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के जीवन का तो वह अपूर्व क्षण था जब वे त्रिलोकीनाथ भगवान के माता-पिता बनकर अपने मानवीय दाम्पत्य जीवन को सफल कर सके थे।
कहते हैं कि उस समय तीर्थंकर की जन्मनगरी (कुण्डलपुर) से अधिक संसार में कहीं भी सुख-सम्पन्नता एवं वैभव नहीं था और न ही तीर्थंकर के पिता (सिद्धार्थ) से ज्यादा कोई महान था। जिसे इन्द्रों ने स्वयं सुसज्जित किया हो, जहाँ पन्द्रह मास तक निरन्तर करोड़ों रत्नों की वर्षा हुई हो उस नगरी की तुलना भला किसी से कैसे की जा सकती है? अर्थात् पुण्य के साम्राज्य का एक मात्र स्थल वह कुण्डलपुर नगर सदैव ऋषि-मुनियों का प्रणम्य स्थल रहा है तथा इन्द्रों द्वारा पूज्य भगवान के माता-पिता की तुलना भी किसी अन्य राजा से नहीं हो सकती है, अर्थात् त्रैलोक्यपति को जन्म देने वाले तो स्वयंं रत्नाकर से भी अधिक महान होते हैं। इसलिए तो भक्तामर स्तोत्र में आचार्य श्री मानतुंग स्वामी ने तीर्थंकर की माता को पूर्व दिशा की उपमा देते हुए तीर्थंकर को साक्षात् सूर्य कहा है।
भारत देश की धरती यूँ तो अनादिकाल से तीर्थंकर, नारायण, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के जन्म, निर्वाण एवं तपस्या आदि से पवित्र रही है किन्तु वर्तमान कर्मयुग में उत्पन्न हुए महापुरुषों की श्रृंखला में शासनपति भगवान महावीर के पाँचों ही कल्याणक बिहार प्रदेश में होने से यहाँ की धरती विशेष पूजनीय है। इनमें से गर्भ, जन्म कल्याणक स्थल के रूप में कुण्डलपुर जहाँ २६ सदियों से पूजा जाता रहा है, वहीं उनके प्रथम देशनास्थल के रूप में राजगृही नगर का विपुलाचल पर्वत एवं निर्वाणभूमि के रूप में पावापुरी-जलमंदिर आज भी सम्पूर्ण जैन जनता की श्रद्धाकेन्द्र के रूप में विद्यमान हैं। इसी प्रकार भगवान महावीर स्वामी की केवलज्ञान कल्याणक भूमि भी बिहार प्रदेश में ही है, जिसे जमुई के नाम से जाना जाता है। आगम में इसका नाम ङ्काम्भिका प्राप्त होता है, जो वर्णन के अनुसार आज भी ऋजुकूला नदी के तट पर बसा हुआ है। वर्तमान में इस तीर्थ पर सवा ९ फुट उत्तुंग भगवान महावीर स्वामी की पद्मासन प्रतिमा विराजामन की जा चुकी है, जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आगामी अप्रैल २०१२ में सम्पन्न होना तय हुआ है। शाश्वत तीर्थराज सम्मेदशिखर की यात्रा करने वालों को बिहार प्रदेश के इन समस्त तीर्थों के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने संघ सहित बिहार प्रदेश में भ्रमण करके उपर्युक्त समस्त तीर्थों के दर्शन के साथ-साथ उनका सूक्ष्मावलोकन भी किया है। तभी उनकी प्रेरणा से महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर का विकास दु्रतगति से हुआ है, साथ ही राजगृही-पावापुरी और गुणावा व जमुई को भी उनकी प्रेरणा से ऐतिहासिक महत्व प्राप्त होने का सुअवसर आया।
कुण्डलपुर में ७ से १२ फरवरी २००३ तक सम्पन्न हुए भगवान महावीर पंचकल्याणक एवं महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव के पश्चात् माताजी ने १९ फरवरी को ससंघ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की यात्रा हेतु मंगल विहार किया और २१-२२-२३ फरवरी को राजगृही में उनका प्रवास रहा। वहाँ पर्वत वन्दना के साथ उन्होंने तीर्थ के प्राचीन इतिहास से लोगों को परिचित कराते हुए बताया कि ‘‘आज से १२ लाख वर्ष पूर्व बीसवें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रत का जन्म राजगृही में हुआ था। अतः उनकी सवा ग्यारह फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा यहाँ शीघ्र विराजमान करना है।’’
२४ फरवरी को संघ प्रातः ८ बजे पावापुरी सिद्धक्षेत्र पर पहुँचा, जहाँ हम सभी लोगों ने जलमंदिर में भगवान महावीर के श्रीचरणों का वृहत् पंचामृत अभिषेक एवं महापूजन करके निर्वाणलाडू चढ़ाया एवं पूज्य माताजी ने सिद्धक्षेत्र की वन्दना करके जलमंदिर के सामने पांडुकशिला परिसर में भगवान महावीर की सवा ग्यारह फुट खड्गासन प्रतिमा विराजमान करने की घोषणा करते हुए क्षेत्र की चहुँमुखी प्रगति का आशीर्वाद प्रदान किया। २५ फरवरी को संघ का पदार्पण गुणावा सिद्धक्षेत्र (गौतम गणधर की निर्वाणभूमि) पर हुआ, वहाँ एक ‘‘चित्रकला दीर्घा’’ का उद्घाटन हुआ तथा वहाँ के इतिहास से संबंधित भगवान महावीर के प्रमुख गणधर शिष्य श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर स्वामी की सवा पाँच फुट ऊँची प्रतिमा विराजमान करने का उद्घोष किया।
भगवान महावीर स्वामी से संबंधित इन सभी पवित्र भूमियों की वन्दना करके जहाँ संघ को आनन्दानुभूति हुई, वहीं ४० वर्षों के बाद बिहार और झारखंड क्षेत्र भी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की चरणरज पाकर फूला नहीं समाया। नवादा, झुमरीतलैया और सरिया इन तीन नगरों को विशेषरूप से धर्मलाभ प्राप्त हुआ और संघ ने अपनी २१ दिवसीय यात्रा पूरी करके १२ मार्च को शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर में मंगल प्रवेश किया। सम्मेदशिखर में हुए विकास कार्यों को देखकर माताजी का मन फूला नहीं समाया, उन्होंने वहाँ की समस्त कार्यरत संस्थाओं के कार्यकर्ताओं को खुले दिल से कोटि-कोटि आशीर्वाद प्रदान किया।
होली का पर्व सम्मेदशिखर के लिए यूँ भी विशेष स्मरणीय रहता है, जब देश भर के दिगम्बर जैन श्रद्धालु श्रावक अपने परिवारों के साथ पारस बाबा के पास पहुँचकर भक्ति का रंग प्रवाहित करते हैं। ऐसे केशरिया वातावरण में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी का संघ सानिध्य पाकर तो भक्तों को मानो सोने में सुगंधि जैसी खुशियाँ प्राप्त हुर्इं और वे उनके साथ पर्वतवन्दना-तीर्थदर्शन आदि करके धन्य-धन्य हो गये। वहाँ यूँ तो समय-समय पर धर्मप्रवचन, मंडलविधान, सम्मेलन वगैरह के कार्यक्रमों में सभी ने गुरुवाणी का लाभ प्राप्त किया, फिर भी उनकी तृप्ति न होने से जब बार-बार दर्शन-प्रवचन का निवेदन भक्तों द्वारा प्रेषित होता रहा तब पूज्य माताजी ने यही कहकर सबको सन्तुष्ट किया कि ‘‘यहाँ मैं दर्शन के लिए आई हूँ न कि दर्शनार्थियों के लिए तथा ‘‘पर्वत की वन्दना करना मेरा सम्मेदशिखर यात्रा का प्रमुख लक्ष्य है, यहाँ भक्तों की भावनापूर्ति मेरा लक्ष्य नहीं है’’ इत्यादि.....इस प्रकार की दर्शनविशुद्धि एवं तीर्थभक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत पूज्यश्री के साथ आर्यिका श्री चंदनामती माताजी, क्षुल्लकश्री मोतीसागर महाराज यात्रा संघ के संंयोजक विजय कुमार जैन-कानपुर एवं सभी संघस्थ जनों ने पर्वत की सात-पाँच इत्यादि वन्दनाएं करके सम्मेदशिखर यात्रा का अपना लक्ष्य पूर्ण किया।

बिहार प्रान्त का यह शाश्वत सिद्धक्षेत्र वर्तमान की परिस्थितियों के अनुसार झारखंड प्रदेश का तीर्थ माना जाता है अतः बिहार और झारखंड इन दो प्रदेशों के प्रमुख तीर्थ हम सभी की श्रद्धा के केन्द्र हैं और विशेष रूप से बिहार की धरती पर भगवान महावीर के पाँचों कल्याणक होने के कारण उसकी पूज्यता ऐतिहासिक अविस्मरणीय है। मैं इस पावनरज को मस्तक पर चढ़ाते हुए देशभर के अपने समस्त दिगम्बर जैन श्रद्धालु भक्तों को भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) पधारने हेतु आमंत्रित करता हूँ।

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